बाल विकास के सिद्धांत (Principles Of Child Development)
बाल विकास की अवधारणा (Concept Of Child Development) -
बाल-विकास का सामान्य अर्थ होता हैं- बालकों का
मानसिक व शारीरिक विकास. विकास शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, संज्ञानात्मक, भाषायी तथा धार्मिक इत्यादि होता
हैं. विकास का सम्बन्ध गुणात्मक ( कार्य कुशलता, ज्ञान, तर्क, नवीन विचारधारा) एवं परिमाणात्मक (लम्बाई
में वृद्धि, भार में वृद्धि तथा अन्य) दोनों से हैं.
बाल विकास को मनोवैज्ञानिक ने
भी परिभाषित किया, जो इस प्रकार हैं-
स्किनर के अनुसार – “ विकास एक क्रमिक एवं मंद गति
से चलने वाली प्रक्रिया हैं.”
हरलॉक के अनुसार – “ बाल
मनोविज्ञान का नाम बाल विकास इसलिए रखा गया क्योंकि विकास के अंतर्गत अब बालक के
विकास के समस्त पहलुओं पर ध्यान केंद्रीत किया जाता हैं, किसी एक पक्ष पर नहीं”.
क्रो एवं क्रो के अनुसार – “ बाल मनोविज्ञान की वह शाखा है जिसमें जन्म से परिपक्वावस्था तक
विकसित हो रहे मानव का अध्ययन किया जाता हैं”.
बाल विकास के सिद्धांत (Principals Of Child Development) :-
बाल
विकास के संदर्भ में कुछ महत्वपूर्ण सिद्धांतों का वर्णन निम्न प्रकार से किया जा
रहा हैं –
1. निरन्तरता का सिद्धांत – इस सिद्धांत के अनुसार विकास ‘एक न रुकने
वाली’ प्रक्रिया हैं. माँ के गर्भ से ही यह प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है
और मृत्युपर्यन्त चलती रहती हैं.
2. समान प्रतिमान का सिद्धांत – इस सिद्धांत के अनुसार बालकों का विकास और वृद्धि उनकी अपनी वैयक्तिकता
के अनुरूप होती हैं. वे अपनी स्वाभाविक गति से ही वृद्धि और विकास के विभिन्न
क्षेत्रों में आगे बढ़ते रहते हैं और इसी कारण उनमें पर्याप्त विभिन्नताओं देखने को
मिलती हैं. किसी की विकास की गति तीव्र और किसी की मन्द होती हैं.
गेसल के अनुसार – “दो व्यक्ति समान नहीं होते,
परन्तु सभी बालकों में विकास का क्रम समान होता हैं”.
3. विकास क्रम की एकरूपता – यह सिद्धांत बताता है की विकास की गति एक जैसी न
होने तथा पर्याप्त वैयक्तिक अन्तर पाए जाने पर भी विकास क्रम में कुछ एकरूपता के
दर्शन होते हैं.
4. वृद्धि और विकास की गति की दर
एक-सी नहीं रहती – विकास
की प्रक्रिया जीवन-पर्यन्त चलती तो हैं, किन्तु इस प्रक्रिया में विकास की गति
हमेशा एक जैसी नही होती. शैशवावस्था के शुरू के वर्षों में यह गति कुछ तीव्र होती
हैं, परन्तु बाद के वर्षों में यह मन्द पड़ जाता हैं.
5. विकास सामान्य से विशेष की ओर चलता
हैं – विकास और वृद्धि की सभी दिशाओं में विशिष्ट
क्रियाओं से पहले उनके सामान्य रूप के दर्शन होते हैं. उदाहरण के लिए – अपने हाथों
से कुछ चीज पकड़ने से पहले बालक इधर से उधर हाथ मारने या फैलाने की कोशिश करता हैं.
6. परस्पर-सम्बन्ध का सिद्धांत – विकास के सभी आयाम, जैसे- शारीरिक, मानसिक,
सामाजिक, संवेगात्मक आदि एक-दुसरे से परस्पर सम्बन्धित हैं. इनमें से किसी भी एक
आयाम में होने वाला विकास अन्य सभी आयामों में होने वाले विकास को पूरी तरह
प्रभावित करने की क्षमता रखता हैं.
7. एकीकरण का सिद्धांत – विकास की प्रक्रिया एकीकरण के सिद्धांत का पालन
करती हैं. इसके अनुसार बालक पहले सम्पूर्ण अंग को और फिर अंग के भागों को चलाना
सीखता हैं.
उदाहरण
के लिए- एक बालक पहले पुरे हाथ को, फिर
अँगुलियों को फिर हाथ एवं अँगुलियों को एकसाथ चलाना सीखता हैं.
8. विकास की भविष्यवाणी की जा सकती
हैं – एक बालक की अपनी वृद्धि और विकास की गति को ध्यान
में रखकर उसके आगे बढ़ने की दिशा और स्वरुप के बारे में भविष्यवाणी की जा सकती हैं.
9. विकास की दिशा का सिद्धांत – इस सिद्धांत के अनुसार, विकास के प्रक्रिया पूर्व निशिचत दिशा में आगे
बढ़ती हैं. विकास की प्रक्रिया की यह दिशा व्यक्ति के वंशानुगत एवं वातावरणजन्य
कारकों से प्रभावित होती हैं. इसके अनुसार बालक सबसे पहले अपने सिर और हाथों की
गति पर नियन्त्रण करना सीखता है और उसके बाद फिर टांगों को. इसके बाद ही वह अच्छी तरह
बिना सहारे के खड़ा होना और चलना सीखता हैं.
10. वृद्धि और विकास की क्रिया
वंशानुक्रम और वातावरण का संयुक्त परिणाम हैं – बालक की वृद्धि और विकास को किसी स्तर पर वंशानुक्रम और वातावरण की
संयुक्त देन माना जाता हैं. अत: वृद्धि और विकास की प्रक्रियाओं में इन दोनों को
समान महत्व दिया जाना आवश्यक हो जाता हैं.
बाल विकास के सिद्धांतों का शैक्षिक महत्व (Educational Imporatnace Of
Principals Of Child Development) :-
प्राथमिक
कक्षाओ में शिक्षण की खेल मूलरूप से वृद्धि एवं विकास की सिद्धांतो पर आधारित है .बाल
विकास के सिद्धांतो से हमे यह जानकारी मिलती है की बालक की सिखने की प्रवृति किस
अवस्था में कैसी है? और उसे कैसी निर्देशन की आवश्यकता है? इन सबकी जानकारी शिक्षक
को उचित एवं प्रभावशाली शिक्षण विधि में अपनाने में सहायता करता है .
1. वृद्धि एवं विकास के सिद्धांतो के जानकारी से बालको के भविष्य में होने
वाली प्रगति का अनुमान लगाना संभव हो पाता है और बालको के मार्गदर्शन ,परामर्श एवं
निर्देशन में सहायता मिलती है.
2. वृद्धि एवं विकास की विभिन्न पहलू जैसे-शारीरिक ,मानसिक ,सामाजिक
सवेंगात्मक विकास एक दुसरे के पूरक है , इसकी जानकारी शिक्षकों को बालक के
सर्वांगीण विकास में सहायता करती है .
3. बाल विकास के सिद्धांत से बालको की रुचियों, क्षमताओं, अभिवृतियो के अनुसार
उचित एवं प्रभावशाली पाठ्यक्रम एवं समय-सारणी के निर्माण में सहायता मिलती है.
बाल विकास को प्रभावित करने वाले कारक (Affecting Factor Of Child
Development)-
बाल
विकास को प्रभावित करने वाले कारकों को मनोवैज्ञानिक ने दो भागों में विभाजित किया
हैं, जो निम्न प्रकार हैं –
(I)
आन्तरिक कारक (Internal Factor)
(II)
बाह्य कारक (External Factor)
आन्तरिक कारक (Internal Factor) –
बाल
विकास को आन्तरिक कारक बहुत हद तक प्रभावित करते हैं, जो की उसके विकास के लिए
महत्वपूर्ण आधार निर्मित करते हैं. आन्तरिक कारक निम्न प्रकार से हैं –
वंशानुगत कारक (Heredity
Factor) – बालक के
रंग-रूप, आकार, शारीरिक-गठन, ऊँचाई इत्यादि के निर्धारण में उसके आनुवंशिक गुणों
का महत्वपूर्ण योगदान होता हैं. बालक के आनुवंशिक गुण उसकी वृद्धि एवं विकास को भी
प्रभावित करते हैं.
शारीरिक कारक (Physical Factor) – जो बालक जन्म से ही दुबले-पतले, कमजोर,
बीमार तथा किसी प्रकार की शारीरिक समस्या से पीड़ित रहते हैं, उनकी तुलना में
सामान्य एवं स्वस्थ बच्चे का विकास अधिक होना स्वाभाविक हैं. शारीरिक कमियों का
स्वास्थ्य पर ही नहीं अपितु वृद्धि एवं विकास पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता हैं.
बुद्धि (Intelligence) – बुद्धि को अधिगम की योग्यता, समायोजन योग्यता, निर्णय
लेने की क्षमता इत्यादि के रूप में परिभाषित किया जाता हैं. जिस प्रकार बालक के
सिखने की गति तीव्र होती हैं, उसका मानसिक विकास भी तीव्र गति से होगा. बालक अपने
परिवार, समाज एवं विधालय में अपने आपको किस प्रकार समायोजित करता हैं, यह उसकी
बुद्धि पर निर्भर करता हैं.
संवेगात्मक कारक (Emotional Factor) – बालक में जिस प्रकार के संवेगों या
भावों (Emotions) का जिस रूप में विकास होगा वह उसके सामाजिक, मानसिक, नैतिक,
शारीरिक तथा भाषा सम्बन्धी विकास को पूरी तरह प्रभावित करने की क्षमता रखता हैं.
सामाजिक प्रकृति (Social Nature) – बच्चा जितना अधिक सामाजिक रूप से
संतुलित होगा, उसका प्रभाव उसके शारीरिक, मानसिक, संवेगात्मक, भौतिक तथा भाषा
सम्बन्धी विकास पर भी उतना ही अनुकूल प्रभाव पड़ेगा.
बाह्य कारक (External Factor) –
उपरोक्त
आन्तरिक कारकों के साथ-साथ बाह्य कारक भी बाल विकास को प्रभावित करते हैं, जो
निम्न प्रकार के हैं-
गर्भावस्था के दौरान माता का स्वास्थ्य एवं परिवेश (Physical
Health Of Mother and Environment During Pregnancy) – गर्भावस्था में माता को अच्छा
मानसिक एवं शारीरिक स्वास्थ्य बनाए रखने की सलाह इसलिए दी जाती हैं की उससे न केवल
गर्भ के अंदर बालक के विकास पर असर पड़ता हैं, बल्कि आगे की विकास की बुनियाद भी
मजबूत होती हैं.
जीवन की घटनायें (Events Of Life) – जीवन की घटनाओं का बालक के जीवन पर प्रभाव पड़ता
हैं. यदि बालक के साथ अच्छा व्यवहार हुआ है, तो उसके विकास की गति सही होगी अन्यथा
उसके विकास पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा.
भौतिक वातावरण (Physical Environment) – बालक का जन्म किस परिवेश में हुआ, वह
किस परिवेश में किन लोगों के साथ रह रहा हैं? इन सबका प्रभाव उसके विकास पर पड़ता
हैं.
सामाजिक-आर्थिक स्थिति (Socio-Economic State) – बालक का सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति
का प्रभाव भी विकास पर पड़ता हैं. निर्धन परिवार के बच्चे को अच्छे विधालय, अच्छा
परिवेश नही मिल पाता इसलिए उनका विकास संतुलित रूप से नही हो पाता हैं. इसके
अपेक्षा शहर के अमीर बच्चों को सभी सुख-सुविधायें मिलने की वजह से उनका सामाजिक
एवं मानसिक विकास अधिक होता हैं.
बाल मनोविज्ञान ( Child Psychology) –
बाल
मनोविज्ञान मनोविज्ञान की वह शाखा हैं, जिसके अंतर्गत बालकों के व्यवहार,
स्थितियों, समस्याओं तथा उन सभी कारणों का अध्ययन किया जाता हैं, जिसका प्रभाव
बालक के व्यवहार एवं विकास पर पड़ता हैं.
इसके अंतर्गत बालकों के जन्म
से लेकर बाल्यावस्था तक का अध्ययन किया जाता हैं. यह शिक्षकों के शिक्षण प्रक्रिया
में मदद करता हैं तथा बालकों के सर्वांगीण विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता
हैं.
क्रो एवं क्रो के अनुसार – “बाल मनोविज्ञान एक वैज्ञानिक
अध्ययन हैं, जिसमें बालक के जन्म के पूर्व काल से लेकर किशोरावस्था तक अध्ययन किया
जाता हैं.
थॉमसन के अनुसार – “बाल मनोविज्ञान सभी को एक नई दिशा में संकेत करता हैं. यदि उसे उचित रूप
में समझा जा सके तथा उसका उचित समय पर उचित ढंग से विकास हो सके, तो हर बच्चा एक
सफल व्यक्ति बन सकता हैं”.
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