विकास की अवधारणा एवं इसका अधिगम से संबंध (Concept of Development and its Relationship With Learning)



विकास की अवधारणा एवं इसका अधिगम से संबंध (Concept of Development and its Relationship With Learning) :- 



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विकास की अवधारणा (Concept of development ):-

विकास जीवनपर्यंत चलने वाले प्रक्रिया है. विकास की प्रक्रिया में बालक का शारीरिक ,क्रियात्मक ,संज्ञानात्मक ,भाषागत ,संवेगात्मक एवं सामाजिक विकास होता है.
                                        बालक में आयु के साथ होने वाले गुणात्मक एवं परिमाणात्मक परिवर्तन सामान्यतया देखे जाते हैं. बालक में क्रमबद्ध रूप से होने वाले सुसंगत परिवर्तन की क्रमिक शश्रृंखला को विकास कहते है .

अरस्तु के अनुसार विकास आतंरिक एवं बाह्य कारणों से व्यक्ति में परिवर्तन हैं.”

विकास के अभिलक्षण (Characteristics) :-
 मनोवैज्ञानिकों ने विकास के विभिन्न अभिलक्षणों (Characteristics ) बताये हैं ,जो निम्नलिखित है –  
विकासात्मक परिवर्तन प्राय: व्यवस्थित प्रगतिशील और नियमित होते हैं. सामान्य से विशिष्ट और सरल से जटिल और एकीकृत से क्रियात्मक स्तरों की और अग्रसर होने के दौरान प्राय: यह एक क्रम का अनुसरण करते हैं.
विकास बहु-आयामी (Multi-dimensional) होता हैं अर्थात कुछ क्षेत्रों में यह बहुत तीव्र वृद्धि को दर्शाता हैं, जबकि कुछ अन्य क्षेत्रों में धीमी गति से होता हैं.
विकासात्मक परिवर्तनों में प्राय: परिपक्वता में क्रियात्मकता (Functional) के स्तर पर उच्च स्तरीय वृद्धि देखने में आती हैं, उदाहरंस्वरूप शब्दावली के आकार और जटिलता में वृद्धि हैं, परन्तु इस प्रक्रिया में कोई कमी अथवा क्षति भी निहित हो सकती हैं. जैसे- हड्डियों के घनत्व में कमी या वृध्दावस्था में याददाश्त का कमजोर होना.
विकासात्मक परिवर्तन ‘मात्रात्मक’ (Quantitative) हो सकते हैं. जैसे- आयु बढ़ने के साथ कद बढ़ना अथवा ‘गुणात्मक जैसे- नैतिक मूल्यों का निर्माण.
विकासात्मक परिवर्तनों के दर अथवा गति में उल्लेखनीय व्यक्तिगत अंतर हो सकते हैं. यह अंतर आनुवंशिक घटकों अथवा परिवेशीय प्रभावों के कारण हो सकते हैं. कुछ बच्चे अपनी आयु की तुलना में अत्यधिक पूर्व-चेतन हो सकते हैं, जबकि कुछ बच्चों में विकास की गति बहुत धीमी होती हैं. उदाहरणस्वरुप, यधपि एक ओसत बच्चा 3 शब्दों के वाक्य 3 वर्ष की आयु में बोलना शुरू कर देता हैं, परन्तु कुछ ऐसे बच्चे भी हो सकते हैं , जो 2 वर्ष के होने से पहले ही ऐसी योग्यता प्राप्त कर लेते हैं.
                                
विकास के आयाम (Stage of development):-
                                 मनोवैज्ञानिकों ने अध्ययन की सुविधा के दृष्टिकोण से विकास को निम्नलिखित भागों में बांटा हैं-

 शारीरिक विकास (Physical development) –
                                    शरीर के बाह्य परिवर्तन जैसे- ऊचाई, शारीरिक अनुपात में वृद्धि इत्यादि जिन्हें स्पष्ट रूप से देखा जा सकता हैं, किन्तु शरीर के आतंरिक अवयवों के परिवर्तन बाह्य रूप से दिखाई तो नहीं पड़ते, किंतु शरीर के भीतर इनका समुचित विकास होता रहता हैं.
प्रारम्भ में शिशु अपने हर प्रकार के कार्यों के लिए दूसरों पर निर्भर रहता हैं, धीरे-धीरे विकास की प्रक्रिया के फलस्वरूप वह अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति में सक्षम होता जाता हैं.
शारीरिक विकास पर बालक के अनुवंशिक गुणों का प्रभाव देखा जा सकता हैं. इसके अतिरिक्त बालक के परिवेश एवम उनकी देखभाल का भी उसके शारीरिक विकास पर प्रभाव पड़ता हैं. यदि बच्चे को पर्याप्त मात्रा में पोषक आहार उपलब्ध नही हो रहा हैं, तो उसके विकास की सामान्य गति की आशा कैसे की जा सकती हैं?
बालक की वृद्धि एवं विकास के बारे में शिक्षकों को पर्याप्त जानकारी इसलिए भी रखना अनिवार्य हैं, क्योकि बच्चों की रुचियों, इच्छाओं, दृष्टिकोण एवं एक तरह से उसका पूर्ण व्यवहार शारीरिक वृद्धि एवं विकास पर ही निर्भर करता हैं.

मानसिक विकास (Mental development)-
                                   संज्ञानात्मक या मानसिक विकास (Cognitive or Mental development) से तात्पर्य बालक की उन सभी मानसिक योग्यताओं एवं क्षमताओं में वृद्धि और विकास से हैं, जिनके परिणामस्वरूप विभिन्न प्रकार की समस्याओं को सुलझाने में अपनी मानसिक शक्तियों का पर्याप्त उपयोग कर पाता हैं.
कल्पना करना, स्मरण करना, विचार करना, निरीक्षण करना, समस्या-समाधान करना, निर्णय लेना इत्यादि की योग्यता संज्ञानात्मक विकास के फलस्वरूप ही विकसित होते हैं.
संज्ञानात्मक विकास के बारें में शिक्षकों को पर्याप्त जानकारी इसलिए होनी चाहिए, क्योंकि इसके अभाव में वह बालकों की इससे सम्बन्धित समस्याओं का समाधान नही कर पाएगा.
विभिन्न अवस्थाओं और आयु-स्तर पर बच्चों की मानसिक वृद्धि और विकास का ध्यान में रखते हुए उपयुक्त पाठ्य-पुस्तक तैयार करने में भी इससे सहायता मिल सकती हैं.

सांवेगिक विकास (Emotional development)-
                                      संवेग, जिसे भाव भी कहा जाता हैं क आर्थ होता हैं ऐसी अवस्था जो व्यक्ति के व्यवहार को प्रभावित करती हैं. भय, क्रोध, घृणा, आश्चर्य, स्नेह, ख़ुशी इत्यादि संवेग के उदाहरण हैं. बालक में आयु बढ़ने के साथ ही इन संवेगों का भी विकास भी होता रहता हैं.

बालक के संतुलित विकास में उसके संवेगात्मक विकास की अहम भूमिका होती हैं.
बालक के संवेगात्मक विकास पर परिवारिक वातावरण भी बहुत प्रभाव डालता हैं.
विधालय के परिवेश और क्रिया-कलापों को उचित प्रकार से संगठित कर अध्यापक बच्चों के संवेगात्मक विकास में भरपूर योगदान दे सकते हैं.
संवेगात्मक बच्चों की शिक्षा में भी योगदान देती हैं.

क्रियात्मक विकास (Motor Development) –
                            क्रियात्मक विकास का अर्थ होता हैं – व्यक्ति की कार्य करने की शक्तियों, क्षमताओ या योग्यताओं का विकास.

एक नवजात शिशु ऐसे कार्य करने में अक्षम होता हैं. शारीरिक वृद्धि एवं विकास के साथ ही उम्र बढ़ने के साथ उसमें इस तरह की योग्यताओं का विकास होने लगता हैं.
इसके कारण बालक को आत्मविश्वास अर्जित करने में भी सहायता मिलती हैं. पर्याप्त क्रियात्मक विकास के अभाव में बालक में विभिन्न प्रकार के कौशलों के विकास में बाधा पहुँचाती हैं.
क्रियात्मक विकास के स्वरुप एवं उसकी प्रक्रिया का ज्ञान होना शिक्षकों के लिए आवश्यक हैं.
जिन बालकों में क्रियात्मक विकास सामान्य से कम होता हैं, उनके समायोजन एवं विकास हेतु विशेष कार्य करने की आवश्यकता होती हैं.

भाषायी विकास (Language Development) –
          भाषा के विकास को एक प्रकार से संज्ञानात्मक विकास माना जाता हैं.
भाषा के माध्यम से बालक अपने मन के भावों, विचारों को एक-दुसरे के सामने रखता हैं एवं दुसरे के भावों, विचारों एवं भावनाओं को समझता हैं.
भाषायी ज्ञान के अंतर्गत बोलकर विचारों को प्रकट करना, संकेत के माध्यम से अपनी बात रखना तथा लिखकर अपनी बातों को रखना इत्यादि को सम्मानित किया जाता हैं.
बालक 6 माह से 1 वर्ष के बिच कुछ शब्दों को समझने एवं बोलने लगता हैं.
3 वर्ष की अवस्था में वह कुछ छोटे वाक्यों को बोलने लगता हैं. 15 से 16 वर्षों के बीच काफी शब्दों की समझ विकसित हो जाती हैं.

सामाजिक विकास (Social Development) –
                               सामाजिक विकास का शाब्दिक अर्थ होता हैं- समाज के अंतर्गत रहकर विभिन्न पहलूओं को सीखना. समाज के अंतर्गत ही चरित्र निर्माण, अच्छा व्यवहार तथा जीवन से संबंधित व्यवहारिक शिक्षा का विकास होता हैं.

बालकों के विकास की प्रथम पाठशाला परिवार को कहा जाता हैं, तत्पश्चात समाज को. सामाजिक विकास के माध्यम से बालकों का जुड़ाव व्यापक हो जाता हैं.
बालक समाज के माध्यम से ही अपने आदर्श व्यक्तियों का चयन करता हैं तथा कुछ बनने की प्रेरणा उनसे लेता हैं.
सामाजिक विकास के माध्यम से बालकों में सांस्कृतिक, धार्मिक तथा सामुदायिक विकास इत्यादि की भावनाएँ उत्पन्न होती हैं.
सामाजिक विकास के दौरान ही बालक अपने हमउम्र के बच्चों से दोस्ती करता हैं तथा सहयोग तथा नैतिक गुणों का विकास होता हैं.

                                 
वृद्धि तथा विकास को प्रभावित करने वाले कारक (Factors of Growth and Development Effect)-

                              वृद्धि तथा विकास को प्रभावित करने वाले अनेक कारक उतरदायी होते हैं, जो निम्नलिखित हैं –

1.     पोषण – यह वृद्धि तथा विकास को प्रभावित करने वाला महत्वपूर्ण कारक होता हैं. बालक को विकास के लिए उचित मात्रा में प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट, खनिज लवण इत्यादि की आवश्यकता होती हैं.

2.     वृद्धि – यह विकास के अन्य कारकों में सबसे महत्वपूर्ण कारक होता हैं. बौद्धिक विकास जितना उच्चतर होगा, हमारे अंदर समझदारी, नैतिकता, भावनात्मक, तर्कशीलता, इत्यादि का विकास उतना ही उत्तम होगा.

3.     वंशानुगत – वंशानुगत स्थिति शारीरिक एवं मानसिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं. माता-पिता के गुण एवं अवगुण का प्रभाव बच्चों पर स्पष्ट रूप से देखने को मिलता हैं.

4.     लिंग – सामान्यतया लड़के एवं लड़कियों में विकास के क्रम में विविधता देखी जाती हैं. किसी अवस्था में विकास की गति लड़कियों में तीव्र होती हैं तो किसी अवस्था में लड़कों में.

NOTE -  12-14 वर्ष की आयु की बीच लड़कों की अपेक्षा लड़कियों की लम्बाई एवं मांसपेशियों में तेजी से वृद्धि होती हैं एवं 14-18 वर्ष की आयु के बीच लड़कियों की अपेक्षा लड़कों की लम्बाई एवं मांसपेशियों तेजी से बढ़ती हैं.

5.     वायु एवं प्रकाश – शरीर को स्वस्थ रखने के लिए स्वच्छ वायु की आवश्यकता होती हैं. साथ-ही-साथ शारीरिक विकास के लिए सूर्य की प्रकाश में विटामिन-डी की प्राप्ति होती हैं जो विकास के लिए अपरिहार्य हैं.

6.     अन्त:स्रावी ग्रंथिया – अन्त:स्रावी ग्रन्थियाँ (Endocrine Glands) से निकलने वाले हार्मोन्स बालक एवं बालिकाए के शारीरिक विकास को प्रभावित करता हैं.

7.     शारीरिक क्रिया – जीवन को स्वस्थ रखने के लिए व्यायाम बहुत जरुरी हैं. यह मानव की आयु बढ़ाता हैं. यह व्यक्ति को सक्रिय बनाये रखता हैं. यह रोग प्रतिरोध शक्ति बढ़ाता हैं.

वृद्धि की अवस्थाओं (Stage of Growth)-
                                मनोवैज्ञानिक ने मानव वृद्धि को निम्नलिखित अवस्थाओं में विभाजित किया हैं, जो इस प्रकार हैं-

1.     शैशवकाल ( Infancy )-
  • इसमें जन्म से 2 वर्ष तक बच्चों का शारीरिक एवं मानसिक विकास तेजी से होता हैं.
  • बालक इस उम्र में पूर्ण रूप से माता-पिता पर आश्रित रहता हैं.
  • इस अवस्था में संवेगात्मक विकास भी होता हैं तथा इस अवस्था में सिखने की क्षमता की गति तीव्र होती हैं.
  • जब नवजात शिशु शैशवकाल की ओर अग्रसर होता हैं, तो उसके अन्दर प्यार एवं स्नेह की आवश्यकता बढ़ने लगती हैं.


2.     बाल्यकाल ( Childhood )-
                       बाल्यकाल को निम्न दो भागों में विभाजित किया गया हैं-
(I)               पूर्व बाल्यकाल – सामान्यतया 2 से 6 की अवस्था पूर्व बाल्यकाल होता हैं. बच्चों में (नकल करने की प्रवृति) अनुकरण एवं दोहराने के प्रवृति पाई जाती हैं. समाजीकरण एवं जिज्ञासा दोनों में वृद्धि होती हैं. मनोवैज्ञानिक दृष्टि से यह काल भाषा सिखने की सर्वोत्तम अवस्था हैं.

(II)            उत्तर बाल्यकाल – 6 से 12 वर्ष तक की अवस्था में बच्चों में बौद्धिक, नैतिक, सामाजिक, तर्कशीलता, इत्यादि का व्यापक विकास होता हैं. पढ़ने की रूचि में वृद्धि के साथ-साथ स्मरण क्षमता का भी विकास होता हैं. बच्चों में समूह भावना का विकास होता हैं अर्थात समूह में खेलना, समूह में रहना, समलैंगिक व्यक्ति को हो ही मित्र बनाना इत्यादि.
                        इस उम्र में बच्चों को जीवन में अनुशासन तथा नियमों की महता समझ में आने लगती हैं. साथ-ही-साथ खोजी दृष्टिकोण एवं घुमने की प्रवृति का भी विकास होता हैं.

3.     किशोरावस्था ( Adult hood)-
                   12 से 18 वर्ष के बिच की अवस्था किशोरावस्था कहलाता हैं. यह अवस्था अत्यंत जटिल अवस्था तथा साथ ही व्यक्ति के शारीरिक संरचना में परिवर्तन देखने को मिलता हैं.
           यह वह समय होता हैं, जिसमें बालक बाल्यावस्था से परिपक्वता की और उन्मुख होता हैं.
         इस अवस्था में किशोर दुश्चिंता (दुविधा) एवं स्वयं से संबंधित सरोकार (मतलब) का भाव रखते हैं. ‘मैं कौन हैं’ मैं क्या हूँ’ ‘मैं भी कुछ हूँ’ जैसी प्रबल भावनाओं का विकास इस अवस्था में होने लगता हैं.
         इस अवस्था में मित्र बनाने की प्रवृति तीव्र होती है एवं सामाजिक सम्बन्धो में वृद्धि होती है .इस अवस्था में नशा या अपराध की ओर उन्मुख होने की संभावना रहती है .

युवा प्रौढ़ावस्था -
सामान्यता 18 से 40 वर्ष तक के आयु को युवा प्रौढ़ावस्था  माना जाता है .
किशोरावस्था एवं युवा प्रौठाव्स्था की कोई निश्चित उम्र नहीं होती .यह अवस्था विकास में निश्चित परिपक्व्ता प्राप्त करने से आती है .

परिपक्व प्रौढ़ावस्था –
यह अवस्था सामान्यता  45 से 60 वर्ष की मानी जाती है .
इस अवस्था में शारीरिक विकास में गिरावट आने लगती है जैसे चेहरे पर झुर्रियो का आना ,बालों का सफ़ेद होना ,जोड़ो में दर्द की शिकायत ,मांसपेशियों में ढीलापन ,थकान की अधिकता .

वृद्ध प्रौढ़ावस्था-
65 से अधिक की आयु वृद्ध प्रौढ़ावस्था की आयु होती है .
इस आयु में सामाजिक ,अध्यात्मिक ,धार्मिक ,सांस्कृतिक कार्यो में रूचि आती है तथा शारीरिक क्षमता कमजोर होती है .

अधिगम (Learning)-

                                           अधिगम और सीखना एक सामान्य बोलचाल में प्रयुक्त होने वाला शब्द हैं. सभी व्यक्ति सिखने शब्द को समझते होंगें परन्तु मनोवैज्ञानिक दृष्टि से अधिगम का अभिप्राय अनुभव के द्वारा व्यवहार में परिवर्तन लाने की प्रक्रिया से हैं.
            ‘’अधिगम – सुधार , परिवर्तन “.

हम अधिगम को मनोवैज्ञानिकों के परिभाषा के माध्यम से समझते हैं-

वुडवर्थ के अनुसार –“ नवीन ज्ञान तथा नवीन प्रतिक्रियाओं का अर्जन करने की प्रक्रिया अधिगम कहलाती हैं”.

गिलफोर्ड के अनुसार –“ व्यवहार के कारण व्यवहार में आया कोई भी परिवर्तन अधिगम हैं.”

स्किनर के अनुसार – “ अधिगम व्यवहार में उतरोतर अनुकूलन की प्रक्रिया हैं.”

                                   सधारण शब्द में बोले, अधिगम एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया हैं जो जीवनप्रयन्त चलता रहता हैं. कोई भी व्यक्ति किसी भी समय किसी से भी कुछ भी सिख सकता हैं, और यही सीखने को अधिगम कहते हैं.

विकास का अधिगम से सम्बन्ध –

                                                विकास के विभिन्न पहलूओं का आपस में घनिष्ट सम्बन्ध हैं एवं ये सभी अधिगम को प्रभावित करते हैं. शारीरिक विकास, विशेषकर छोटे बच्चों में मानसिक एवं संज्ञानात्मक विकास में मददगार हैं. सभी बच्चों की खेल की गतिविधियों में सहभागिता उनके शारीरिक व मनो-सामाजिक विकास के लिए आवश्यक हैं.
                                                     अर्थ निकलना, अमूर्त सोच (Abstract Thought) की क्षमता विकसित करना, विवेचना व् कार्य, अधिगम की प्रक्रिया के सर्वाधिक महत्वपूर्ण पहलू हैं. दृष्टिकोण, भावनाओं और आदर्श, संज्ञानात्मक विकास के अभिन्न हिस्से हैं और भाषा विकास, मानसिक चित्रण, अवधारणाओं व इनका गहरा संबंध हैं.




मुझे आशा है की मेरे द्वारा साझा की गयी ज्ञान आपको प्रगति के उच्च शिखर तक ले जाएगी, अगर कोई समस्या या किसी topic पर मेरी राय जाननी हो तो comment जरुर करे , अपना समय देने के लिए आपसभी को दिल से धन्यवाद.  



                     
                                  
                                      







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