पियाजे, कोह्लबर्ग एवं वाइगोत्स्की के सिद्धांत (Principals Of Piaget, Kohleberg and Vygotsky)



पियाजे, कोह्लबर्ग एवं वाइगोत्स्की के सिद्धांत (Principals Of Piaget, Kohleberg and Vygotsky) –


                     मानव विकास की वृद्धि एवं विकास के कई आयाम होते हैं. विकास की विभिन्न अवस्थाओं में बालकों में विविध प्रकार के गुण एवं विशेषता पाई जाती हैं. इसका अध्ययन मनोवैज्ञानिकों ने विकास की अवस्थाओं के सन्दर्भ में किया हैं, जो सिद्धांत के रूप में हमारे सामने हैं. विकास की अवस्थाओं से संबंधित सिद्धांतों के देने वाले वैज्ञानिकों में पियाजे, कोह्लबर्ग एवं वाइगोत्स्की का नाम उल्लेखनीय हैं.
जीन पियाजे का संज्ञानात्मक विकास का सिद्धांत –

                                   जीन पियाजे स्विट्जरलैंड के एक मनोवैज्ञानिक थे. बालकों में बुद्धि का विकास किस प्रकार से होता हैं, यह जानने के लिए उन्होंने अपने स्वयं के बच्चों को अपनी खोज का विषय बनाया. बच्चे जैसे-जैसे बड़े होते गए, उनके मानसिक विकास सम्बन्धी क्रियाओ का वे बड़ी बारीकी से अध्ययन करते रहे. इस अध्ययन के परिणामस्वरूप उन्होंने जीन विचारों का प्रतिपादन किया, उन्हें पियाजे के मानसिक या संज्ञानात्मक विकास के सिद्धांत के नाम से जाना जाता हैं.
               संज्ञानात्मक विकास का तात्पर्य बच्चों के सीखने और सूचनाएं एकत्रित करने के तरीके से हैं. इसमें अवधान में वृद्धि प्रत्यक्षीकरण, भाषा, चिंतन, स्मरण शक्ति तथा तर्क शामिल हैं.
पियाजे के संज्ञानात्मक सिद्धांत के अनुसार – “वह प्रक्रिया जिसके द्वारा संज्ञानात्मक संरचना को संशोधित किया जाता हैं, समावेशन कहलाता हैं.
पियाजे ने अपने इस सिद्धांत के अंतर्गत यह बात सामने रखी की बच्चों में बुद्धि का विकास उनके जन्म के साथ जुड़ा हुआ हैं. प्रत्येक बालक अपने जन्म के समय कुछ जन्मजात प्रवृतियाँ एवं सहज क्रियाओं को करने सम्बन्धी योग्यताओं जैसे- चुसना, देखना, वस्तुओं को पकड़ना, वस्तुओं तक पहुँचना आदि को लेकर पैदा होता हैं. अत: जन्म के समय बालक के पास बौद्धिक संरचना के रूप में इसी प्रकार की क्रियाओं को करने की क्षमता होती हैं, परन्तु जैसे-जैसे वह बड़ा होता हैं, उन बौद्धिक क्रियाओं का दायरा बढ़ जाता हैं. बच्चों में दुनिया के बारे में समझ विकसित करने की क्षमता पैदा हो जाती हैं. वातावरण के अनुसार स्वयं को ढालना अनुकूलन कहलाता हैं. बच्चों में वातावरण के साथ सामंजस्य स्थापित करने की बेहतर क्षमता होती हैं. पूर्व ज्ञान के साथ नवीन ज्ञान को जोड़ने की प्रक्रिया को आत्मसातीकरण (Assimilation) कहते हैं. जब बालक अपने पुराने स्कीमा अर्थात् ज्ञान में परिवर्तन करना प्रारम्भ कर देता हैं तो वह प्रक्रिया समायोजन (Adjustment) कहलाती हैं.
पियाजे ने संज्ञानात्मक विकास को चार अवस्थाओं में विभाजित किया हैं जिनके नाम एवं विशेषताएँ इस प्रकार हैं –
1.      इन्द्रियजनित गामक अवस्था (जन्म से 2 वर्ष तक)
2.      पूर्व संक्रियात्मक अवस्था (2 वर्ष से 7 वर्ष तक)
3.      मूर्त संक्रियात्मक अवस्था (7 वर्ष से 11 वर्ष तक)
4.      औपचारिक/अमूर्त संक्रियात्मक अवस्था (11 वर्ष से आगे)

इन्द्रियजनित गामक अवस्था ( जन्म से 2 वर्ष तक) –
·         मानसिक क्रियाएँ इन्द्रियजनित गामक क्रियाओं के रूप में ही सम्पन्न होती हैं.
·         भूख लगने की स्थिति को बालक रोकर व्यक्त करता हैं. इस अवस्था में व्यक्ति आँख, कान एवं नाक से सोचता हैं. जीन वस्तुओं को वे प्रत्यक्षत: देखते हैं, उनके लिए उसी का अस्तित्व होता हैं.
·         इस तरह यह अवस्था अनुकरण स्मृति और मानसिक निरूपण से सम्बन्धित हैं.
पूर्व संक्रियात्मक अवस्था (2 से 7 वर्ष तक) –
·         इस अवस्था में बालक अपने परिवेश की वस्तुओं को पहचानने एवं उसमें विभेद करने लगता हैं.
·         इस दौरान उसमें भाषा का विकास भी प्रारम्भ हो जाता हैं. इस अवस्था में बालक नई सूचनाओं और अनुभवों का संग्रह करता हैं. वह पहली अवस्था की अपेक्षा अधिक समस्याओं का समाधान करने योग्य हो जाता हैं. बच्चों में वस्तु स्थायित्व के गुण का विकास होता हैं.
मूर्त संक्रियात्मक अवस्था (7 से 11 वर्ष तक) –
·         इस अवस्था में बालक में वस्तुओं को पहचानने, उनका विभेदीकरण (Differentiation) करना तथा वर्गीकरण (Classification) करने की क्षमता विकसित हो जाती हैं.
·         भाषा का पूर्ण विकास, बालक किसी पूर्व और उसके अंश के सम्बन्ध में तर्क कर सकता हैं. बालक अपने पर्यावरण के साथ अनुकूलन (Adaptation) करने के लिए अनेक नियमों को सीख लेता हैं.
ओपचारिक/अमूर्त संक्रियात्मक अवस्था (11 वर्ष से आगे) –
·         यह अवस्था ग्यारह वर्ष से प्रौढ़ावस्था तक की अवस्था हैं. अमूर्त चिंतन इस अवस्था की प्रमुख विशेषता हैं.
·         इस अवस्था में भाषा सम्बन्धी योग्यता तथा सम्प्रेषणशीलता (Communication) का विकास अपनी ऊँचाई को छुने लगता हैं.
·         इस अवस्था में व्यक्ति अनेक संक्रियात्मक को संगठित कर उच्च स्तर के संक्रियात्मक का निर्माण कर सकता हैं और विभिन्न प्रकार की समस्याओं के समाधान के लिए अमूर्त नियमों का निर्माण कर सकता हैं.
·         बालक में अच्छी तरह से सोचने, समस्या-समाधान करने एवं निर्णय लेने की क्षमता का विकास हो जाता हैं.
जीन पियाजे के संज्ञानात्मक विकास के सिद्धांत का शैक्षिक महत्व –
Ø  पियाजे के अनुसार संज्ञानात्मक या मानसिक विकास निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया हैं.
Ø  तार्किक चिंतन के विकास में बाल्यावस्था महत्वपूर्ण कड़ी मानी जाती हैं. अत: शिक्षकों को बच्चों में तार्किक क्षमता बढ़ाने का प्रयास करना चाहिए.
Ø  शिक्षकों को प्रयोगात्मक शिक्षा एवं व्यावहारिक शिक्षा पर बल देना चाहिए. प्रयोगों के माध्यमों से बालकों में नवीन विचार का संचार होता हैं. नवीन दृष्टिकोण मौलिक अन्वेषण के दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण होता हैं.
Ø  शिक्षक को वाद-विवाद प्रतियोगिता का आयोजन करते रहना चाहिए, यह प्रतियोगिता नवीन सोच एवं नवीन विचारों को जन्म देती हैं.
जीन पियाजे के अन्य सिद्धांत –
                      जीन पियाजे द्वारा दिए कुछ अन्य सिद्धांत निम्न हैं, जो इस प्रकार हैं –
निर्माण और खोज का सिद्धांत –
Ø  पियाजे का विचार है की ज्ञानात्मक विकास केवल नकल न होकर खोज पर आधारित हैं. नवीनता या खोज को उद्दीपक-अनुक्रिया सामान्यीकरण के आधार पर नहीं समझाया जा सकता हैं. उदाहरण के लिए – एक चार साल का बालक यदि भिन्न-भिन्न आकार के प्यालों को प्रथम बार क्रमानुसार लगा देता हैं, तो यह उसकी बौद्धिक वृद्धि की खोज और निर्माण से सम्बन्धित हैं.
कार्य-क्रिया का अर्जन –
Ø  कार्यात्मक क्रिया का तात्पर्य उस विशिष्ट प्रकार की मानसिक दिनचर्या से हैं, जिसकी मुख्य विशेषता उत्क्रमणशीलता हैं.
Ø  प्रत्येक कार्यात्मक-क्रिया का एक तर्कपूर्ण विपरीत प्रभाव होता हैं. उदाहरण के लिए, एक मिट्टी के चक्र को दो भागों में तोड़ना तथा दो टूटे हुए भागों को पुन: एक पूर्ण चक्र के रूप में जोड़ना एक कार्यात्मक-क्रिया हैं. कार्यात्मक-क्रिया की सहायता से बच्चे मानसिक रूप से वहाँ पुन: पहुँच सकते हैं, जहाँ से उन्होंने कार्य प्रारम्भ किया था.
Ø  बौद्धिक वृद्धि का केंद्र इन्हीं कार्यात्मक-क्रिया का अर्जन हैं.
Ø  पियाजे का विचार है की जब तक बालक किशोरावस्था तक नहीं पहुँच जाता हैं, तब तक वह भिन्न-भिन्न विकास अवस्थाओं में भिन्न-भिन्न वर्गों की कार्यात्मक-क्रिया का अर्जन करता रहता हैं.
Ø  सात्मीकरण का अर्थ है की बालक में उपस्थित एक विचार में किसी नए विचार या वस्तु का समावेश हो जाता. पियाजे के अनुसार, सात्मीकरण बालक के प्रत्य्क्षात्मक-गत्यात्मक समन्वय से सम्बन्धित हैं.
जीन पियाजे का नैतिक विकास का सिद्धांत –
पियाजे ने नैतिक विकास का सिद्धांत दिया. इनके अनुसार नैतिक निर्णय के विकास में एक निशिचत क्रम एवं तार्किक क्रम होता हैं. पियाजे के अनुसार नैतिक अवस्थाएँ दो प्रकार की होती हैं, जो निम्न हैं –
1.       परायत नैतिकता (Stage of Heteronomous Morality) की अवस्था (2 से 8 वर्ष तक) – पियाजे के अनुरूप इस अवस्था का उद्भव बालकों में असमान अन्त:क्रिया से होती हैं. इस काल में बच्चों में नैतिक नियम निरपेक्ष, अपरिवर्तन तथा दृढ़ प्रवृति के होते हैं.
2.       स्वायत्त नैतिकता (Autonomous Morality) की अवस्था (9 से 11 वर्ष) – इस काल में नैतिकता बच्चों के समकक्ष अर्थात् मित्रों के बीच के सम्बन्धों से विकसित होती हैं. अपने मित्रों के सम्बन्धों के द्वारा न्याय का एक ऐसा दर्शन उभरता हैं, जिससे दुसरे के अधिकारों के सन्दर्भ में चिंता एवं पारस्परिकता का भाव दिखता हैं.

लॉरेन्स कोह्लबर्ग का नैतिक विकास की अवस्था का सिद्धांत –


लॉरेन्स कोह्लबर्ग ने जीन पियाजे के सिद्धांत को आधार बनाकर नैतिक विकास की अवस्था का सिद्धांत दिया, जिसे उसे तीन भागों में विभाजित किया हैं –
पूर्व परम्परागत स्तर या पूर्व नैतिक स्तर (4 से 10 वर्ष) – इस आयु के बालक अपनी आवश्यकताओं के बारे में सोचते हैं. नैतिक दुविधाओं से सम्बन्धित प्रश्न उनके लाभ या हानि पर आधारित होते हैं. नैतिक कार्य का सम्बन्ध सामाजिक एवं सांस्कृतिक रूप से क्या सही हैं एवं क्या गलत है इससे सम्बन्धित होता हैं. इसके अंतर्गत दो चरण हैं –
1.       दण्ड तथा आज्ञापालक अभिमुखता (Punishment and Obedience Orientation) – बालकों के मन में आज्ञापालन का भाव दण्ड पर आधारित होता हैं, इस अवस्था में बालकों में नैतिकता का ज्ञान होता हैं. बालक स्वयं को परेशानियों से बचाना चाहता हैं. अगर कोई बालक स्वीकृत व्यवहार करता हैं तो इसका कारण दण्ड से स्वयं को बचाना हैं.
2.       आत्म अभिरुचि तथा प्रतिफल अभिमुखता (Self-Interest and Reward Orientation) – इस अवस्था में बालकों का व्यवहार खुलकर सामने नही आता हैं, वह अपनी रूचि को प्राथिमकता देता हैं. वह पुरस्कार पाने के लिए नियमों का अनुपालन करता हैं.

परम्परागत नैतिक स्तर (10 से 13 वर्ष) –
कोई बालक दुसरे व्यक्ति के नैतिक मानकों को अपने व्यवहार में समाहित करता हैं तथा उस मानक के सही एवं गलत पक्ष पर चिंतन के माध्यम से निर्णय करता हैं, तथा उस पर अपनी सहमति बनाता हैं. इसके मुख्य दो चरण हैं –
1.       अधिकार संरक्षण अभिमुखता (Law and Order Orientation) – इस अवस्था में बालक नियम एवं व्यवस्था के प्रति जागरूक रहते हैं तथा वे नियम एवं व्यवस्था के प्रति जवाबदेह होते हैं.
2.       अच्छा लड़का या अच्छी लड़की (Good Boy or Good Girl) – इस अवस्था में बच्चे में एक-दुसरे का सम्मान करने की भावना होती हैं तथा दूसरों से सम्मान पाने की इच्छा रखते हैं.
उत्तर परम्परागत नैतिक स्तर या आत्म अंगीकृत मूल्य (13 वर्ष से ऊपर) –
कोह्लबर्ग के मतानुसार नैतिक विकास के परम्परागत स्तर पर नैतिक मूल्य या चारित्रिक मूल्य का सम्बन्ध अच्छे या बुरे कार्य के सन्दर्भ में निहित होता हैं. बालक बाहरी सामाजिक आशाओं को पूरा करने में रूचि लेता हैं. बालक अपने परिवार, समाज एवं राष्ट्र के महत्व को प्राथमिकता देते हुए एक स्वीकृत व्यवस्था के अंतर्गत कार्य करता हैं.
1.       सामाजिक अनुबन्ध अभिमुखता (Social Contract Orientation) – इस अवस्था में बच्चे वही करते है जो उन्हें सही लगता हैं तथा वे यह भी सोचते हैं की स्थापित नियमों में सुधार की आवश्यकता तो नही हैं.
2.       सार्वभौमिक नैतिक सिद्धांत अभिमुखता (Universal Ethical Principal Orientation) – इस अवस्था में बालक अत:करण की ओर अग्रसर हो जाती हैं. अब बच्चे का आचरण दुसरे की प्रतिक्रियाओं का विचार किए बिना उसके आन्तरिक आदर्शों के द्वारा होता हैं. यहाँ बच्चे के अनुरूप व्यवहार करता हैं.
वाइगोत्स्की का सामाजिक विकास का सिद्धांत –
v  सोवियत रूस के मनोवैज्ञानिक लेव वाइगोत्स्की ने बालकों में सामाजिक विकास से सम्बन्धित एक सिद्धांत का प्रतिपादन किया. इस सिद्धांत में उन्होंने बताया की बालक के हर प्रकार के विकास में उसके समाज का विशेष योगदान होता हैं.
v  वाइगोत्स्की ने बताया की समाज से घुलने-मिलने के फलस्वरूप ही उसमें विभिन्न प्रकार का विकास होता हैं. समाज में उसे जिस प्रकार की सुविधायें उपलब्ध होगी, उसका विकास भी उसी प्रकार होगा.
v  बाल्यावस्था के बाद किशोरावस्था में लिंग सम्बन्धी चेतना तीव्र हो जाती हैं. इस आयु में अधिकतर किशोर और किशोरियाँ अपने हमउम्र-समूह की सक्रिय सदस्य होते हैं.
v  किशोरावस्था संवेगों की तीव्र अभिव्यक्ति की अवस्था भी हैं. इस अवस्था में विशिष्ट रुचियों और सामाजिक सम्पर्क का क्षेत्र भी अत्यधिक विस्तृत होता हैं.
v  वाइगोत्स्की के सामाजिक विकास के सिद्धांत का निहितार्थ है सहयोगात्मक समस्या-समाधान अथार्त बच्चे अपने शिक्षक के निर्देशानुसार अपने साथियों की सहायता से उन समस्याओं का समाधान कर पाते हैं, जिन्हें उन्होंने पहले अपनी कक्षा में देखा हैं.



मैं उम्मीद करती हूँ की आपको मेरी ये प्रयास CTET की तैयारी में आपकी बहुत मदद करेगी. अपना कीमती समय देने के लिए आपसभी को दिल से धन्यवाद!  


  


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